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 श्री मिथिला जैन तीर्थ, सीतामढ़ी


 

 


इस मंदिर में 13 फरवरी 2015 को जैन धर्म के 19वें तीर्थंकर मल्लिनाथ व 21वें तीर्थंकर नमिनाथ की प्रतिमा स्थापित की गई।

19वें तीर्थंकर मल्लिनाथ व 21वें तीर्थंकर नमिनाथ का अवतरण सीतामढ़ी की धरती पर हुआ था।

19वें तीर्थंकर मल्लिनाथ :- जैन धर्म के उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान श्री मल्लिनाथ जी का जन्म मिथिलापुरी के इक्ष्वाकुवंश में मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष एकादशी को अश्विन नक्षत्र में हुआ था। इनके माता का नाम माता रक्षिता देवी और पिता का नाम राजा कुम्भराज था। इनके शरीर का वर्ण नीला था जबकि इनका चिन्ह कलश था। इनके यक्ष का नाम कुबेर और यक्षिणी का नाम धरणप्रिया देवी श्री मल्लिनाथ जी ने मिथिलापुरी में मार्गशीर्ष माह शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को दीक्षा की प्राप्ति की थी और दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 2 दिन बाद खीर से इन्होनें प्रथम पारण किया था। दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् एक दिन-रात तक कठोर तप करने के बाद भगवान श्री मल्लिनाथ जी को मिथिलापुरी में ही अशोक वृक्ष के नीचे कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई थी। श्री मल्लिनाथ जी स्वामी के गणधरों की कुल संख्या 28 थी, जिनमें अभीक्षक स्वामी इनके प्रथम गणधर थे।भगवान श्री मल्लिनाथ जी ने हमेशा सत्य और अहिंसा का अनुसरण किया और अनुयायियों को भी इसी राह पर चलने का सन्देश दिया। फाल्गुन माह शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को 500 साधुओं के संग इन्होनें सम्मेद शिखर पर निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त किया था।

मंगल कलश :- यह भगवान मल्लिनाथ के चरण का चिन्ह है। कलश मंगल का प्रतीक है। कलश हमें जीवन में पूर्णता प्राप्त करने की शिक्षा देता है। बाहर यात्रा पर जाते समय यदि भरा हुआ कलश दिख जाए तो यह शुभ शकुन माना जाता है। कलश को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि कलश का पेट बडा तथा मुख छोटा होता है। मनुष्य को इसी प्रकार ज्ञान प्राप्त करने के लिए, सदगुणों का संग्रह करने के लिए कलश की तरह ह्रदय को बडा बनाना होगा। परन्तु अपनी प्रशंसा करने के मामले में मुख को छोटा या बन्द रखना चाहिए। कलश में रखा जल लोगों की प्यास बुझाता है। इससे यह शिक्षा मिलती है कि हमारे द्वार पर आने वाला कोई भी व्यक्ति बिना त्रप्ति पाए नहीं लौट जाए। भगवान मल्लिनाथ के चरण में चिन्हित मंगल कलश हमें पात्रता, योग्यता प्राप्त करने की प्रेरणा देता है, उसके लिए पहले कष्ट उठाने पडेंगे, जो कष्ट सहन करेगा वही योग्य सुपात्र बनेगा।

जैन धर्म में श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार मल्लिनाथ जी जैन धर्म में एकमात्र महिला तीर्थंकर थी, किसी भी धर्म में महिला धर्माचार्य का शायद यह एकमात्र उदाहरण है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भगवती मल्लि कुमारी जी दीक्षा पश्चात् श्वेत वस्त्र को धारण किया।भगवान मल्लीनाथ स्त्री देह से तीर्थंकर हुए। इसे अच्छेराभुत (आश्चर्य -जनक घटना) माना गया है। अनन्त अतीत मे जितने भी तीर्थंकर हुए, सभी पुरुष देह मे ही हुए। इस आश्चर्यजनक घट्ना को आकार देने वाला व्रत्त इस प्रकार है – अपने पुर्वभव में मल्ली प्रभु का जीव विदेह क्षेत्र की वीतशोका नगरी में महाबल नामक राजा था। महाबल के छ्ह बालसखा थे। उनके नाम थे – (१) अचल, (२) धरण, (३) पुरण, (४) वसु, (५) वैश्रावण और (६) अभिचन्द्र सातो मित्रो ने साथ-साथ रहने का मैत्री -संकल्प किया। फ़लत : कालान्तर में सातों मित्रो ने एक साथ दीक्षा अंगीकार की। ‘भविष्य में भी हम एक साथ रहे‘ इस विचार से सातो ने समान तप-जप करने का परस्पर निर्णय किया। परन्तु महाबल ने स्वयं की मित्रो पर प्रधानता रखने हेतु गुप्त तप करना शुरु कर दिया। मन में रखी गई इसी माया के फ़लस्वरुप महाबल ने स्त्रीगौत्र का अर्जन किया। इसी कारण महाबल का जीव त्र्तीय भ्व मे मल्ली के रूप मे जन्मा। मिथिला नरेश महाराज कुम्भ की रानी प्रभावती की रत्नकुक्षी से मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को प्रभु का कन्या रूप में जन्म हुआ। उधर शेष छ्हों मित्र भी भारतवर्ष के विभिन्न राजकुलों में पुत्ररुप में जन्में। वें छ्हों कालक्रम से अपने -अपने राज्यों के राजा बनें। अचल का जीव अयोध्या का राजा प्रतिबुद्धि बना। धरण का जीव चम्पा का राजा चन्द्रच्छाय हुआ। पुरण का जीव कुणाला नगरी का रूक्मी नामक राजा बना। वसु का जीव अदीनशत्रु नामक हस्तिनापुर का राजा बना। वैश्रवण का जीव काम्पिल्यपुर का राजा जतशत्रु हुआ और अभिचन्द्र का जीव काशी नरेश शंख हुआ।

दिगम्बर परम्परा के अनुसार स्त्री को मोक्ष नही हो सकता है, परन्तु श्वेताम्बर परम्परा इसके एकदम विपरीत है, जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में स्त्री को भी मोक्ष की अधिकारी माना है।

प्रभु मल्लिनाथ जी की आयु 55,000 वर्ष थी, प्रभु के देह की ऊंचाई 25 धनुष थी। मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष एकादशी को अश्वनी नक्षत्र में प्रभु ने दीक्षा ग्रहण की, प्रभु मल्लिनाथ जी का साधनाकाल मात्र 6 दिन का था। इसके पश्चात प्रभु मल्लिनाथ जी को पौष कृष्ण दूज के दिन निर्मल केवलज्ञान की प्राप्ती हुई और प्रभु पाँच ज्ञान के धारक हो गये। इसके पश्चात प्रभु ने साधु, साध्वी व श्रावक, श्राविका नामक चार तीर्थो को स्थापित किया और चार तीर्थो की स्थापना करने के कारण स्वयं तीर्थंकर कहलाये। प्रभु ने चैत्र अमावस्या के दिन सम्मेद शिखर जी में निर्वाण प्राप्त किया और प्रभु अरिहंत से सिद्ध कहलाये।

21वें तीर्थंकर नमिनाथ :- प्रभु नमिनाथ जी जैन धर्म के 21वें तीर्थंकर है। प्रभु नमिनाथ जी का जन्म मिथिला के इक्ष्वाकु वंश में श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को अश्विनी नक्षत्र में हुआ था। इनकी माता का नाम विप्रा रानी देवी और पिता का नाम राजा विजय था।

प्रभु नमिनाथ जी का प्रतीक चिह्न नील कमल था। प्रभु की देह का रंग सुनहरा था। प्रभु नमिनाथ जी जन्म से ही तीन ज्ञान (श्रुतज्ञान, मतिज्ञान , अवधिज्ञान ) के धारक थे। आपकी आयु 10 हजार वर्ष थी और कद 90 फुट ऊंचा। आपका कुमार काल ढाई हजार वर्ष और राज्य काल 5 हजार वर्ष का रहा।

प्रभु ने आषाढ कृष्ण दशमी के दिन दीक्षा ग्रहण की , दीक्षा के समय प्रभु को मनः पर्व ज्ञान की प्राप्ती हुई और प्रभु चार ज्ञान के धारक हो गये ।प्रभु नमिनाथ जी के साधनाकाल की अवधी 9 माह की थी। 9 माह के पश्चात मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन प्रभु को निर्मल कैवलय ज्ञान की प्राप्ती हुई , प्रभु सर्वज्ञ , जिन , केवली ,अरिहंत प्रभु हो गये।

प्रभु ने चार घाती कर्मो का नाश कर परम दुर्लभ कैवलय ज्ञान की प्राप्ती हुई थी। प्रभु पाँच ज्ञान के धारक हो गये ।इसके पश्चात् प्रभु नमिनाथ ने चार तीर्थो की साधु/ साध्वी व श्रावक/ श्राविका की स्थापना की और स्वयं तीर्थंकर कहलाये । प्रभु का संघ विस्तृत था।

प्रभु ने सम्मेद शिखरजी में वैशाख कृष्ण चर्तुदर्शी के दिन निर्वाण प्राप्त किया। प्रभु के मोक्ष के साथ ही प्रभु ने अष्ट कर्मो का क्षय किया और सिद्ध हो गये।

तुलसीदास ने मिथिला को अभूतपूर्व नगरी लिखते हुए मल्लिनाथ व नमिनाथ के बारे में आदरभाव प्रकट किया है।

 

श्री नमिनाथ चालीसा
सतत पूज्यनीय भगवान, नमिनाथ जिन महिभावान ।
भक्त करें जो मन में ध्याय, पा जाते मुक्ति-वरदान ।
जय श्री नमिनाथ जिन स्वामी, वसु गुण मण्डित प्रभु प्रणमामि ।
मिथिला नगरी प्रान्त बिहार, श्री विजय राज्य करें हितकर ।
विप्रा देवी महारानी थीं, रूप गुणों की वे खानि थीं ।
कृष्णाश्विन द्वितीया सुखदाता, षोडश स्वप्न देखती माता ।
अपराजित विमान को तजकर, जननी उदर वसे प्रभु आकर ।
कृष्ण असाढ़- दशमी सुखकार, भूतल पर हुआ प्रभु- अवतार ।
आयु सहस दस वर्ष प्रभु की, धनु पन्द्रह अवगाहना उनकी ।
तरुण हुए जब राजकुमार, हुआ विवाह तब आनन्दकार ।
एक दिन भ्रमण करें उपवन में, वर्षा ऋतु में हर्षित मन में ।
नमस्कार करके दो देव, कारण कहने लगे स्वयमेव ।
ज्ञात हुआ है क्षेत्र विदेह में, भावी तीर्थंकर तुम जग में ।
देवों से सुन कर ये बात, राजमहल लौटे नमिनाथ ।
सोच हुआ भव- भव ने भ्रमण का, चिन्तन करते रहे मोचन का ।
परम दिगम्बर व्रत करूँ अर्जन, रत्तनत्रयधन करूँ उपार्जन ।
सुप्रभ सुत को राज सौंपकर, गए चित्रवन ने श्रीजिनवर ।
दशमी असाढ़ मास की कारी, सहस नृपति संग दींक्षाधारी ।
दो दिन का उपवास धारकर, आतम लीन हुए श्री प्रभुवर ।
तीसरे दिन जब किया विहार, भूप वीरपुर दें आहार ।
नौ वर्षों तक तप किया वन में, एक दिन मौलि श्री तरु तल में ।
अनुभूति हुई दिव्याभास, शुक्ल एकादशी मंगसिर मास ।
नमिनाथ हुए ज्ञान के सागर, ज्ञानोत्सव करते सुर आकर ।
समोशरण था सभा विभूषित, मानस्तम्भ थे चार सुशोभित ।
हुआ मौनभंग दिव्य धवनि से, सब दुख दूर हुए अवनि से ।
आत्म पदार्थ से सत्ता सिद्ध, करता तन ने ‘अहम्’ प्रसिद्ध ।
बाह्य़ोन्द्रियों में करण के द्वारा, अनुभव से कर्ता स्वीकारा ।
पर…परिणति से ही यह जीव, चतुर्गति में भ्रमे सदीव ।
रहे नरक-सागर पर्यन्त, सहे भूख – प्यास तिर्यन्च ।
हुआ मनुज तो भी सक्लेश, देवों में भी ईष्या-द्वेष ।
नहीं सुखों का कहीं ठिकाना, सच्चा सुख तो मोक्ष में माना ।
मोक्ष गति का द्वार है एक, नरभव से ही पाये नेक ।
सुन कर मगन हुए सब सुरगण, व्रत धारण करते श्रावक जन ।
हुआ विहार जहाँ भी प्रभु का, हुआ वहीं कल्याण सभी का ।
करते रहे विहार जिनेश, एक मास रही आयु शेष ।
शिखर सम्मेद के ऊपर जाकर, प्रतिमा योग धरा हर्षा कर ।
शुक्ल ध्यान की अग्नि प्रजारी, हने अघाति कर्म दुखकारी ।
अजर… अमर… शाश्वत पद पाया, सुर- नर सबका मन हर्षाया ।
शुभ निर्वाण महोत्सव करते, कूट मित्रधर पूजन करते ।
प्रभु हैं नीलकमल से अलंकृत, हम हों उत्तम फ़ल से उपकृत ।
नमिनाथ स्वामी जगवन्दन, ‘रमेश’ करता प्रभु- अभिवन्दन ।
जाप: … ॐ ह्रीं अर्ह श्री नमिनाथाय नम:

 

 

 

 

 

 

 

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