श्री हीरा लाल जी महाराज साहब - संक्षिप्त जीवन वृत
इतिहास साक्षी है कि मध्य प्रदेश की मालव - मही अनेक नर रत्नों की खान है, जिनकी आज भी यश - सुरभि दिग - दिगंत को सुवासित किए हैं। ऐसे महिमावंत भू - भाग में मंदसौर (प्राचीन दशपुर) जिले कंजार्डा गांव में ओसवाल जैन भंडारी परिवार में सुश्रावक श्री रतन चंदजी की सहधर्मिणी श्रीमती राजकुंवर बाई की कुक्षि से वि. सं. 1903 में श्री जवाहरलाल, वि. सं. 1909 में श्री हीरालाल वि. सं. 1912 में श्री नंदलाल इस प्रकार तीन बालकों का जन्म हुआ। श्री रतनचंदजी पूरा परिवार सुसंस्कृत एवं धर्मनिष्ट था। संतों की सत्संगति में संसार को असार जान श्री रतनचंदजी ने वि. सं. 1914 में अपने नन्हें - नन्हें तीनों प्राण - प्रिय सुपुत्रों, पत्नी तथा चल - अचल संपत्ति को तृणवत त्याग कर अपने साले केरी गांव निवासी श्री देवीलालजी के साथ हुक्मेशगच्छीय तपस्वी श्री राजमल जी के सानिध्य में भागवती दीक्षा अंगीकरी कर ली। पत्नी श्रीमती राजकुंवर बाई भी इन्हीं के साथ संयम धारण करना चाहती थी, किंतु उस समय पुत्र छोटे थे और वह नहीं चाहती थी कि उन्हें दूसरों के भरोसे छोड़े।
श्री जवाहरलाल जी की उम्र जब 16 वर्ष की हुई तो सगाई की चर्चा चली, किंतु उन्होंने अपने पिताश्री की तरह ही प्रव्रज्या ग्रहण करने की बात सोचकर ब्रह्मचया व्रत धारण कर लिया। परिजन चाहते थे कि जवाहरलाल जी गृहस्थाश्रम में प्रवेश करें, पर ऐसा हो न सका। वि. सं. 1920 में जब आचार्य श्री शिवलाल जी म., युवाचार्य श्री चौथमलजी म. तपस्वी श्री राजमल जी म., श्री रतनचंदजी म., श्री देवीलालजी म. आदि आठ आज मुनिराज कंनजाडा पधारे, तो माता श्रीमती राजकुंवर बाई ने अपने तीनों पुत्रों को दीक्षा दिला दी। दीक्षा के समय श्री जवाहरलाल जी की उम्र 17 वर्ष, श्री हीरालाल की उम्र 12 वर्ष और श्री नंदलालजी की उम्र 7 वर्ष की थी। इसी दौरान श्रीमती राजकुंवर बाई ने भी दीक्षा अंगीकार कर ली। इस प्रकार पूरा परिवार ही दीक्षित हो गया।
श्री हीरालाल म. बचपन से ही मिष्ठाभाषी, हंसमुख, सरल स्वभाव एवं शांत प्रक्रति के थे। दीक्षित होने के पश्चात उन्होंने अपने जीवन को संयम साधना के साथ ज्ञान ध्यान में लगा दिया। आगमों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। मृदुभाषी होने से व्याख्यान असकारी हो गए। व्यवहार इतना अच्छा था कि जो भी संपर्क में आता, वह प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था। प्रवचनों के विषय प्रतिपादन में ऐसे - ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करते थे कि श्रोतागण सहज ही प्रभावित हो जाते थे। कवि हृदय होने से श्री हीरालालजी महाराज ने तत्कालीन राग - रागिनियों में कई उपदेशात्मक भजनों, स्तवन – स्तुतियों, लावणीयों तथा चरित्रों के रचनाएं की, जो आज भी कई श्रद्धालुओं के कंठहार बनी हुई है। मुनिश्री द्वारा रचित एवंता मुनिवर की लावणी तो हर पर्यूषण पर्व में अगधिांश अधिकांश संत - सतियों द्वारा व्याख्यानों में गाई जाती है। जैन सुबोध हीरा, जैन भजन तरंगिनी, ज्ञान दपाण आदि रचना संग्रह मुनिश्री द्वारा विरचित है।
कविवर श्री हीरालालजी म. की संयमित वैराग्य वाहिनी - वाणी से कई आत्माऐं, अध्यात्म - साधना पथ की पथिक बनी। मुनिश्री के शिष्य परिवार में श्री शाकर चंद जी म., जैन दिवाकर श्री चौथमल जी म., श्री हजारीमलजी म. ( मंदसौर ), श्री शोभालालजी म., श्री मयाचंदजी म., श्री मूलचंदजी म. आदि मुनि सम्मिलित थे। वि. सं. 1974 के किशनगढ़ वर्षावास में प्लेग के कारण विहार कर मुनि श्री अजमेर पधारें। वृद्धावस्था तो थी ही। आश्विन कृष्णा दवितीय अमावस्या दिन संध्या को मुनि श्री को ज्वर ने आ घेरा। ज्वर बढ़ता ही गया और आश्विन शुक्ला प्रतिपदा को समाधि पूर्वक देवलोक गमन हो गया। ऐसे महा मुनीश्वर जैन दिवाकर प्रसिद्ध वक्ता, जगद वल्लभ, भारत भूषण, शताब्दी पुरष के गुरु श्री हीरालाल जी म. जिन्होंने तमाम विरोधों के पश्चात भी युवा चौथमल को मुनि चौथमल बनाकर तराशा, और ऐसा तराशा की जैन जगत का सितारा ही नहीं, जैन दिवाकर बना कर दैदीप्यमान कर जैन जगत में सदा - सदा के लिए उनको याद किया जाएगा। हीरे का साथ पाकर जैन दिवाकर जी का जीवन तो कृतार्थ हुआ ही, साथ हो लाखों जैन – जैनेतर के जीवन को संवारने का जो कार्य किया किया गया है, वह इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा।
लेखक :- सुरेन्द्र मारू, इंदौर ( +91 98260 26001)
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