श्री गणेशी लाल जी महाराज साहब - संक्षिप्त जीवन वृत
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जन्म : सौभाग्य शालिनी माता धूलीबाई एवं पिता श्रीमान पूनमचंदजी लालवानी बिलाड़ा, मारवाड़ निवासी के घर आंगन में वि. सं.1936 कार्तिक शुक्ला छठ, बुधवार की शुभ रात्रि के चतुर्थ प्रहर में माता धूली की पावन कुक्षी से एक तेजस्वी पुण्यात्मा का जन्म हुआ। नवजात शिशु का गणेश नाम रखा गया। लालवानी परिवार एवं संपूर्ण गांव मैं मंगल गीतों के साथ गुड़ की प्रभावना बटवाई गई। नवजात शिशु गणेश का अत्यंत लाड प्यार शिष्टाचार युक्त पालन होने लगा। समय के साथ गणेश भी बड़े होने लगे, 5 वर्ष की उम्र में ज्ञानार्थ पाठशाला जाने लगा उन्हीं दिनों गणेशमल की माता ने द्वितीय पुत्र को जन्म दिया मां - बाप की शोभा प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि हुई नव शिशु का नाम शोभाचंद्र रखा गया। कांचन मणि सा सुंदर मेल गणेश तथा शोभाचंद्र से हुआ। जहां मंगलसूचक गणेश तथा प्रतिष्ठा स्वरूप शोभाचंद्र युगल भ्राता की रमणीय जोड़ी का संगम हुआ। बुद्धिमान गणेशमल भी बुद्धि के भंडार थे। वे पढ़ते कम गुणते अधिक, रटते कम रमाते अधिक। पढ़ने की अनूठी अभिरुचि ने उन्हें विनयी, विवेकवान बना दिया। विनय, विवेकशीलता से कुछ ही वर्षों में गणेश विद्यार्थी का ज्ञान - कोष वृद्धि पाने लगा। गणित, सामाजिक ज्ञान तथा महाजनी लिखा पढ़ी में आशातीत सफलता प्राप्त करके अपने पिता श्री पूनमचंदजी और माता धूलीदेवी को संतुष्ट किया। बालक गणेश मल की उत्तरोत्तर प्रगति देखकर माता - पिता ने सोच लिया - “पुण्यात्मा पुत्र घर की पूरी - पूरी जवाबदारी संभालने में थोड़े ही दिनों में सक्षम हो जाएगा। यह समर्थ होगा तो हमें धर्म आराधना करने में आनंद आएगा।
काल की गत - मात - पिता - भाई - वियोग : काल की गति बड़ी विचित्र होती है इसके गहन गर्भ में क्या - क्या छुपा हुआ है? यह कोई कैसे जान पाए? गणेशमल ने 16वे वर्ष में प्रवेश किया ही था कि अचानक मां धुली का पार्थिव शरीर काल में समा गया। मां धुली अपने प्राण प्यारे युगल पुत्रों को छोड़कर महायात्रा की ओर चल पड़ी। मां का वियोग संतान के लिए कितना दर्दनाक होता है, यह भुक्तभोगी ही जान पाएगा। कई दिनों तक मां की स्मृतियां उनके दिमाग में तैरती रहे प्यार भरा पालन-पोषण रह–रहकर उन्हें याद आता कभी-कभी स्वप्न में वे दोनों देखते मां धूली प्यार से मस्तक पर हाथ फेरते हुए आशीर्वाद दे रही है इस प्रकार का आभास होता। अपने पुत्रों की दशा को देखकर पूनमचंद जी को कई बार विचार आता बच्चों का व्यवस्थित रूप से लालन-पालन जैसा उनकी मां कर सकती थी वैसा कर पाना उनके लिए कठिन। पत्नी के स्वर्गवास के 23 दिन पश्चात अर्थात 24 वे दिन उन्हें दिल का दौरा पड़ा और दोनों बच्चों को छोड़कर इस संसार से विदा हो गए। माता - पिता 24 दिन के भीतर चले गए अब दोनों बच्चे अकेले ही रहा है इस वज्रपात ने दोनों भाइयों के दिल को तो चोट पहुंचाई ही साथ ही जिसने भी है सुना देखा उनके दिल दहल उठे दोनों भाई आखिर बालक ही तो ठहरे।आघात लगने से गणेश तथा शोभाचंद्र ने निश्चय कर लिया कि अब यहां नहीं रहना अन्य गांव में जाना ही उचित रहेगा यहां रहेंगे तो प्रतिपल माता-पिता की स्नेहिल याद हमेशा आती रहेगी यह ठीक नहीं। इस प्रकार दोनों भाइयों ने देश छोड़ दिया इसलिए कहा भी है -
धुन के पक्के कर्मठ मानो, जिस पथ पर बढ़ जाते हैं।
एक बार तो रौरव को भी, स्वर्ग बिना दिखलाते हैं।।
दोनों भाई मातृभूमि को छोड़कर महाराष्ट्र के मनमाड नगर में चले आए। दोनों भाइयों ने सोचा था कि यहां पर पढ़ाई भी कर लेंगे और साथ ही कुछ नौकरी करके जीवन बिताएंगे पर यह विचार – धारा निष्ठुर काल को मंजूर कहां हुई? मौत आती हुई दिखाई नहीं देती आयुष्य कर्म खत्म होने पर मौत आकर धर दबोचती है। मौत ने अपना निशाना छोटे भाई शोभाचंद्र पर डाला, बीमारी ने उसे घेर लिया गणेशमल ने अथक उपचार कराया किंतु कोई असर नहीं हुआ भाई गणेशमल के देखते-देखते शोभाचंद्र स्वर्ग की राह पर चल पड़े। निराधार धरा पर गणेशमल के सामने माता-पिता एवं लघु भ्राता का वियोग एक के बाद एक आघात पर आघात दे गया।
पुरुषार्थ : साहसिक पथिक विचलित तथा निराशावादी नहीं बनता और विशेष परिश्रम के साथ संघर्षों से लोहा लेता है वही आगे जाकर जगत तथा जन - जन में वंदनीय, आदरणीय बन जाता है। युवक गणेशमल के पुरुषार्थ ने करवट ली, भाग्य के जोर के कारण ही जो परिचित थे वह तो सम्मान दे ही रहे थे किंतु अपरिचित जन भी उन्हें गोद लेने को तैयार हो गए। तब गणेशमल ने कहा मुझे दो बाप नहीं करने। मैं परिश्रम के बलबूते पर जो भी कमाऊंगा वह मुझे पसंद होगा। ईमानदारी पूर्वक अपना जीवन - यापन करना चाहता हूं कुछ दिनों में गणेशमल का मन मनमाड से उचट गया मनमाड छोड़कर आप बेलापुर चले आए। वहां एक श्रीमंत के यहां नौकरी करने लगे, लगभग ढाई वर्ष तक नौकरी करते रहे। एक दिन जाली हुंडी लिखने के लिए सेठ ने गणेशमल जी से कहा। तब निडरता से उत्तर देते हुए उन्होंने जवाब दिया मेरे हाथ सत्य हकीकत लिख सकते है असत्य लिखना मेरे जीवन के लिए कलंक होगा ऐसे काले कारनामे मुझसे नहीं होंगे। सेठ का मानस बदला हुआ था, यदि जाली हुंडी नहीं बनाएंगे तो व्यापार कैसे करें?व्यापार साधारण चले मुझे मंजूर है किंतु पैसों के लिए नकली हुंडी बनाना सरासर अन्याय है, विश्वासघात है। जो अपने ऊपर विश्वास करके आएगा उसके साथ धोखा होगा।उनकी नजरों में ईमान - सत्य - शील-अहिंसा का महत्व हैं। चांदी के टुकड़ों के पीछे उलझना नहीं, अध्यात्म पथ पर चलना है। गणेशमल ने बिना वेतन ही सेठ से सप्रेम विदाई चाह कहा - मुझे आपके पैसों की आवश्यकता नहीं है न मुझे चाहिए, आपने इतने दिन घर दुकान पर रख लिया यह बहुत बड़ी बात है।
सत्यनिष्ठा : आपकी सत्यनिष्ठा से बेलापुर में ही रहने वाला एक मुस्लिम भाई बहुत प्रभावित हुआ, उसने आपको व्यापार में सहयोग दिया स्वयं के पुरुषार्थ तथा मुस्लिम बंधु के सहयोग से अच्छे ढंग से व्यापार चलने लगा कुछ दिनों में सारे नगर में आपके व्यापार कार्य की प्रशंसा होने लगी।
सगाई प्रस्ताव को वैराग्य ने हराया : श्री गणेशमल के नैतिक जीवन की सौरभ आसपास के क्षेत्र में अच्छी तरह फैली। सुहानी महक से प्रभावित होकर ‘नगर शूल’ गांव के मान्यवर श्रेष्ठी श्रीमान खेमचंदजी बाफना ने अपनी पुत्री का विवाह आपके साथ करने का निश्चय किया। विवाह का प्रस्ताव लेकर भी आपके पास आए अपनी पुत्री के साथ विवाह करने का आपसे अनुरोध किया तब आपने एकांत में बैठकर विचार किया कि विवाह के बंधन में बंधना अच्छा या त्यागी बनाना? पूर्व जन्म के शुभ संस्कारों से शुभ विचारों की दुनिया खड़ी होती है बस वैसे ही उन्होंने सोचा और चिंतन मनन के पश्चात इस निर्णय पर पहुंचे कि मुझे संयम अंगीकार करना है, मैं भोग विलास के दलदल में उलझना नहीं चाहता अतः आप अपनी पुत्री का विवाह के लिए कोई अन्य वर की तलाश कीजिए।
धर्म पथिक गुरु प्रवर की सानिध्यता : कुछ दिन व्यतीत हुए होंगे एक दिन अचानक श्री गणेशमल के पेट में भयंकर दर्द पैदा हुआ। अतिशय दर्द से सोचने लगे यदि इसी दर्द के बीच मेरी आयु पूर्ण हो गई तो संयम लेने की भावना अपूर्ण रह जाएगी। संयम पथ पर चलता हुआ त्याग - प्रत्याखान सहित प्राणोत्सर्ग होगा तो सदगति, मिलेगी कहीं जीवन अधूरा ही न रह जाए? “यदि चार प्रहर के भीतर पेट - दर्द का शमन हो गया तो अतिशीघ्र दीक्षा स्वीकार करूंगा।“ इस प्रकार अनाथी मुनि के समान मन ही मन निश्चय कर लिया। नवकार महामंत्र के ध्यान में श्री गणेशमलजी तन्मय हो गए। दृढ़ निश्चय तथा महामंत्र के प्रभाव से चार प्रहर पूर्ण होते-होते तो श्री गणेशमलजी का पेट दर्द ठीक हो गया। उत्तम भावना के प्रबल वेग ने रोग को भगाकर ही दम लिया और आप पुनः स्वस्थ हो गए।
विक्रम संवत 1963 में बेलापुर में कोटा संप्रदाय के महामुनि वात्सल्य वारिधि तपस्वी राज श्री प्रेमराजजी महाराज का चातुर्मास है। तब आप व्यापार को तिलांजलि देकर निकल पड़े महान गुरु को प्राप्त करने। बलवती भावना के साथ श्री गणेशमल जी बेलापुर, तपस्वीराज के सन्निकट जा पहुंचे। धर्म पथ प्रबोधक मुनि श्री प्रेमराजजी महाराज को देखकर, उनके दर्शन करके श्री गणेशमलजी ने ऐसा अनुभव किया कि “यहां मुझे आत्म - दर्शन, आत्म - कल्याण का अनुपम पथ अवश्य मिलेगा। “चरणों में विनम्र प्रार्थना करते हुए अपना परिचय दिया तथा वे बोले - गुरुदेव! मैंने भोगों की नश्वरता, संसार की असारता तथा देह कि क्षणभंगुरता का स्पष्टत: अनुभव किया है। संसारियों की स्वार्थ - परायणता भी मुझसे छिप न सकी।जिन्हें में अपना समझता था वह मेरे माता - पिता - भाई भी मुझे अकेला छोड़कर महाप्रयाण कर गए। मैंने जगत में दृष्टि पसार कर देखा तो सहारा रूप में सिर्फ दो ही नजर आए, जिसमें प्रथम आप श्री अर्थात गुरु और दूसरा धर्म। मैं आपके श्रीचरणों में दीक्षा लेने को आया हूं। पंच महाव्रत देने का अनुग्रह करें, इसके लिए मैंने प्रण भी किया है। आप श्री के मार्ग दर्शन में मेरा धारा हुआ कार्य सिद्ध हो जाए यही मेरा अनुनय आग्रह है।
“देवानुप्रिय! तुमने जो शुभ संकल्प संजोया है, वह बहुत महत्वपूर्ण है। पुण्यशाली भव्यात्मा ही ऐसा महान विचार करने में सक्षम है। साधु बनना बहुत अच्छा है पर इसमें मेहनत ज्यादा है।बड़े-बड़े व्यक्ति भी इस पद पर कदम बढ़ाने में हिचकिचाते हैं तो साधारण मानव की बात ही क्या? भगवान महावीर का आत्म मार्ग जितना सरल, उतना ही कठिन है। मेरु पर्वत के शिखर पर पहुंचना सरल हो सकता है, लोहे के चने चबाये जा सकते हैं, किंतु श्रमण-धर्म की चढ़ाई उससे भी कठिन है, महा कठिन है। पंच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति का सम्यकता आराधना बड़ी दुष्कर प्रक्रिया है। केश लोचन को कायर व्यक्ति तो देख भी नहीं सकता। धीर – वीर पुरुष इन कठिनाइयों को सहजतया पार कर जाते हैं। संघर्षों से लोहा लेने की जिसमें क्षमता होती है वहीं इस मार्ग पर बढ़ पाता है, वह कठिनाइयों के बीच से गुजरता हुआ भी संयम-पथ को सरल मानता है। इसीलिए यह सरल किंवा कठिन दोनों तरफ से जुड़ा हुआ है”। तपस्वी राज ने फरमाया।
गुरुदेव बड़े बुजुर्ग कहते आए हैं कि स्वर्ण जब तक आग को नहीं सहता तब तक शुद्धता के शिखर पर नहीं पहुंचता। बस, वैसे ही व्यक्ति जब तक दुष्कर राह से न गुजरे वह कैसे पावन, निर्मल बन पाए? भूतकाल में अपने कर्मों के कारण नर्क गति में गई। नर्क के महादु:खों, प्राणघातक व्यथा को सहकर आई है तो उस क्षेत्र वेदना के सामने ये परीषह तो कुछ भी नहीं है। जिन परीषहों को कायर दु:खरूप मानते हैं, उन संयमी जीवन में आने वाले संघर्षों को मैं सुखरूप मानता हूं। परीषह सहन करेंगे तभी तो निर्जरा होगी। साध्वाचार के पालन में कठोर कदम उठाएंगे तभी संयम की साधना में सफलता मिलेगी। साधु जीवन जीने के लिए जो विचार आप श्री ने भी फरमाये है मैं उन्हीं विचारों का समर्थक ही नहीं, उन्हें आचरण में लाने के लिए ही आया हूं, आप मुझे अपनी सेवा में रहने की आज्ञा प्रदान करें। मैं आपश्री की आज्ञा की प्रतीक्षा में हूं, सेवा में रहने के बाद आप जैसा फरमाएंगे वैसा ही मैं करूंगा।
अंतर्मन की उज्जवल वैराग्य भावना जिसकी होती है उसे अपने विचारानुसार खोजने पर सच्चे गुरु मिल ही जाते हैं। ऐसे ही धर्म रूचि से ओत-प्रोत शुचिभूत मनस्वी श्री गणेशमलजी को महा मना ज्योतिर्धर ज्योति ध्यान मुनि पंगव गुरु प्रवर का सहजतया सुयोग मिल ही गया तथा संतरत्न तपस्वी राज को सुयोग्य शिष्य का मिलाप होना सोने में सुगंध वाली बात हो गई।श्री गणेशमलजी के उत्तम भावों को सम्यकतया जानकर मुनि प्रवर ने अपने निकट रहने की स्वीकृति दे दी।
स्वीकृति प्राप्त कर श्री गणेशमलजी का मन फूला नहीं समाया उन्हें असीम आनंद का अनुभव हुआ जैसे जौहरी को सच्चा हीरा मिला वैसे ही मानस-मणि के पारखी को गुरुरूप हीरा प्राप्त हो गया। ज्यों - ज्यों सन्निकटता बढ़ती गई त्यों - त्यों गुरुदेव का ज्ञान भंडार गणेशमलजी को मुक्तहस्त मिलता गया। बेलापुर से चतुर्मास समाप्ति के पश्चात तपस्विराज की विहार यात्रा प्रारंभ हुई। आपश्री के साथ श्री गणेशमलजी वैरागी भी थे।धर्म-प्रचार करते हुए तपस्वी राजश्री प्रेमराजजी महाराज के चरण कमल “नगर शूल” गांव तक पहुंचे, यह वही गांव है जहां से कुछ महीनों पूर्व श्री गणेशमलजी के साथ एक श्रीमंत पुत्री का संबंध निश्चित करने आए थे।बेलापुर नगर में; किंतु वैराग्य रस की पावन गंगा में स्नान करने वाले को भोगरूपी गंदे कीचड़ का नाला क्योंकर प्रिय होगा? कभी नहीं। भगवान महावीर की वाणी में - “अनासक्त आत्मा कामवासना को विषवत मानकर परित्याग करती हुई कर्मबंधन से मुक्त होने का सतत प्रयास करती है।
दीक्षा : नगर शूल निवासी मान्यवर श्रेष्ठी श्रीमान खेमचंद जी बाफना एवं उनकी धर्मपत्नी सुश्राविका झमकू बाई को पता लगा कि तपस्वी श्री प्रेमराजजी महाराज नगर शूल में पधारे हैं उनके साथ एक दीक्षार्थी भाई भी है। उन्हें यह भी जानकारी हुई कि यह वही मुमुक्षु है, जिन्हें हम अपनी कन्या अर्पण कर रहे थे। बींद (वर) बनने वाला आज वैरागी के रूप में आ गया है। जिनकी दीक्षा लेने की तीव्र अभिलाषा है। क्यों न यह सेवा का स्वर्णिम लाभ अपन लेवें?
विचारानुरूप झमकु बाईअपने पतिदेव से बोली - तपस्वीराज से विनती करो कि आपश्री के साथ जो भी बैरागी भाई हैं उनकी शुभ दीक्षा अपने घर से हो, हम यही चाहते हैं। दीक्षा जैसा पवित्र कार्य और क्या होगा? हमारी भावना को सफल बनाने में आप श्री सहयोग दें। बाफना जी को भी यह बात उचित लगी, उन्होंने तपस्वीराज के श्री चरणों में पहुंचकर विनम्र निवेदन कर आग्रह किया कि यह शुभ लाभ हमें दीरावें।
बाफना जी के आग्रह भरे निवेदन को तपस्वीराज ने यथार्थ रूप में समझा फिर बैरागी गणेशमलजी की जिज्ञासा जानने के लिए उनसे कहा - सेठ खेमचंदजी तुम्हारी दीक्षा करवाना चाहते हैं - बोलो अब संयम स्वीकार करना है या कुछ दिनों - महीनों बाद। श्री गणेशमलजी अब तक महाराज श्री के निकट रहते हुए बहुत कुछ ज्ञान की बातें सीख चुके थे।
गुरुदेव आप श्री ने फरमाया कि इंद्रिय विजेता को समय मात्र का प्रमाद नहीं करना चाहिए, अर्थात समय को मूल्यवान समझकर संयम में प्रवृत्ति करना ही महत्वपूर्ण है। तो फिर मैं अब दिन और महीने व्यर्थ ही कैसे व्यतीत कर सकता हूँ? इतना समय जो बीता है उसका भी मुझे दु:ख है पर करता भी क्या? अंतराय कर्म जो ठहरा। अब तो आप कहीं भी दीक्षा दे, मैं बिल्कुल तैयार हूं। गणेशमलजी ने उत्सुकता से अपना भाव प्रकट किए।
दीक्षा लेने तथा देने वाला दोनों ही जब तैयार हैं फिर देर किस बात की। महाराज श्री ने स्वीकजी का दिल हर्ष से भर दिया।
बस बात सारे नगर में फैल गई एक विरक्त आत्मा संयम पथ स्वीकार कर रही है। चारों ओर सीमातीत हर्ष की लहर दौड़ गई। विक्रम संवत 1970 मृगसर सुदी नवमी का शुभ दीक्षा दिन निकाल दिया, तदनुसार नवमी के दिन वैराग्यनंदी गणेशमलजी का बढ़े ठाठ के साथ दीक्षा महोत्सव मनाया। दीक्षा देते समय महान तपस्वीराज श्री प्रेमराजजी महाराज ने विशाल जनसमूह को संदेश देते हुए दीक्षा जीवन के महत्वपूर्ण गुणों का वर्णन किया, उन्होंने कहा जिनपथ की श्रमण दीक्षा स्वीकार करने वालीभव्यात्मा आत्मगुणों में रमण करने वाली होती है। जिसके जीवन में श्रद्धारूपी नींव एवम आत्म सरोवर के भावक्रिया की वज्रमय भित्ति होती है, सत्रह प्रकार के संयम जिसके सोपान है, संतोष जिसका दरवाजा है, चार प्रकार की समाधि आराम, पंच समिति त्रिगुप्ति जिसकी सुदृढ़ छत है, बारह प्रकार के तप जिसके लौह स्तंभ हैं, दस यति धर्म जिसकी अलमारियां हैं, सद्गुण (सत्ताविस गुण) रूपी रत्न जिस भंडार की आलमारियों में सुरक्षित रहते हैं, सम्यक ज्ञान का उज्जवल प्रदीप जहां ज्योतिर्मान है, शांति तथा समता के निर्मल नीर से जो आपूरित हैं, 12 भावनारूपी कमल जहां खिलते हैं। ऐसा श्रमण धर्म निश्चित रूप से कल्याणी है।
समाज के बीच गणेशमलजी जैन आहर्ता दीक्षा स्वीकार कर रहे हैं। मेरी इन से यही अपेक्षा है कि नवदीक्षित मुनि अपने कुल को तो उज्जवल जरूर करेंगे ही साथ ही मनी मर्यादाओं का उच्चतम पालन करते हुए जिन शासन की शोभा में पृथ्वी पर प्रतिक्षण अभिव्यक्ति करेंगे ही साथ ही मुनि मर्यादाओं का उच्चतम पालन करते हुए जिनशासन की शोभा में प्रतिपल प्रतिक्षण अभिवृद्धि करेंगे।
संयम यात्रा : इस तरह आपकी संयम यात्रा प्रारंभ हो गई आपने अपने गुरुदेव के द्वारा बताए गए आदर्शों का पालन करते हुए उत्तम भावना के साथ एक - एक विगय अर्थात दूध - दही - घी - मिष्ठान प्रतिदिन एक-एक का परित्याग करते हुए संयम पथ पर आगे बढ़ते रहें एक समय आहार लेना साथ ही प्रतिदिन एक विगय को छोड़ना कोई कम बात नहीं। दीक्षा लेने के कुछ समय बाद से ही आपने तप आराधन प्रारंभ कर दिया तथा जीवन पर्यंत उसका पालन किया एकांतर तप उपवास तो आयुष्यभर करते रहे साथ ही तेले आदि तपस्या बीच-बीच में करते रहे आगमों पर आपकी अत्यंत श्रद्धा थी आगमों का आप नियमित स्वाध्याय करते थे 45 आगमो को आपने अपने हाथ से लिपिबद्ध किया था।
शुद्ध खादी पहनने के विशेष हिमायती थे जब गांधीजी के अहिंसा और खादी के आवाज उठी तब से ही आपने अपने तन पर खादी धारण कर ली अपने उपासक को खादी का उपदेश देते और आगे चलकर तो खादी धारकों से ही बात करते उन्होंने अपने जीवन में खादी का विशेष प्रचार किया उनकी प्रेरणा से खादी भंडार चलता था। आप की प्रेरणा एवं उपदेश से कइयों ने खादी धारण कर अन्य वस्त्रों का त्याग कर दिया था। आप गौ प्रेमी दयालु एवं रक्षक थे। जब भारत में गाय कत्लखाने में जाने लगी तब आपको पीड़ा पहुंची। आप की मान्यता थी कि यदि भारतवासी घर – घर में गाय पालने लग जाए तो कत्लखानों में गाय नहीं जाएंगी। आप की प्रेरणा से अनेक स्थानों पर गोशाला खुली और आज भी कार्यरत है।
आप परंपरा प्रेमी, धार्मिक परंपरा के पोषक थे तथा उसका कट्टरता से पालन करने कराने के हिमायती थे। शुद्ध जैनत्व के प्रबल प्रचारक थे आप के समीप खुले मुंह ( बिना मुंहपत्ती ) बैठने वाले को फटकार देते, कभी-कभी तो वहां से उठाकर बाहर भेज देते थे। आप श्री के प्रभाव से कईयों ने अपने शुद्ध जैन धर्म को पहचाना। आपके सानिध्य में आने वालों से आप तपस्या करवाते थे।
स्वर्गारोहण : जीवन के अंतिम समय में आपके अमृत वचन हे देवानुप्रिय श्रावकों नाशवान देह की अब क्या चिंता करना यह तो परिवर्तनशील है, इससे ज्यादा चिंता ज्ञान, दर्शन, और चरित्र की होनी चाहिए क्योंकि उत्तम धर्म आराधना जैसा श्रेष्ठ कार्य दूसरा कोई नहीं है। मन तो कभी का अंदर प्रवेश पा गया है अब इस मकान में चंद दिनों के लिए बसेरा अवश्य करना है।
बाहर इसीलिए खड़ा हूं कि आप लोग मेरी शर्त मंजूर करो तो गौशाला में मेरा प्रवेश हो, मेरी शर्तें इस प्रकार है -
मेरे पास दर्शन, प्रवचन, प्रार्थना में आने वाले बड़ी उम्र वाले नर - नारी जूते, चप्पल, बूट आदि पहनकर नहीं आवे।
बिना मुंह पत्ती बांधे कोई भी मेरे यहां प्रवेश नहीं करें।
आधुनिक वेश सूट - बूट, कोट - पेंट पहन कर नहीं आवे।
और ना ही आधुनिक बाल कटिंग वाला आवे।
- स्थानक में बिना सामायिक कोई ना बैठे।
- शुद्ध खादी के वस्त्र पहनने वाले से ही मैं बात करूंगा।
अल्पावधि की अस्वस्थता ने आपको अत्यंत ही कमजोर कर दिया। डॉक्टर वैद्य की दवा लेने से इंकार कर दिया। आपका मानना कि तप की दवा ही श्रेष्ठ है। शुभ संकल्प माघ माह के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन संध्या के समय जालना चतुर्विद संघ की उपस्थिति में आपने जीवन पर्यंत के लिए संथारा स्वीकार कर लिया इस अवसर पर सेवा में विराजित तपस्वी श्री बसंत मुनि जी महाराज ने भी तपस्वीराज श्री गणेशजी महाराज के मुखारविंद से 8 तक के प्रत्याखान लिए अन्य अनेकों भाई बहनों ने भी तेले ग्रहण किए। बौद्धिक शरीर उत्तरोत्तर शिथिल हो रहा था। कर्नाटक गजकेसरी श्री गणेशीलाल जी महाराज शारीरिक व्याधि से मुक्त होने की आकांक्षा रखते हुए क्षमता सुधा का पान करने में शांत भाव में निमग्न थे। इस तरह विक्रम संवत 2018 माघ बदी अमावस्या (ई. सन 04.02.1962) के दिन 8:45 पर कर्नाटक गज केसरी जी महाराज पार्थिव शरीर से संबंधित सम भाव में स्वर्ग की महान यात्रा पर चल दिए। जिन शासन का एक महान रत्न सब को छोड़कर दिव्य आलोक में विलीन हो गया। आपके स्मारक गणेश धाम, जालना पर जैन और जैनेतर दर्शनार्थ आते है और कृतार्थ हो जाते है।
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लेखक :- सुरेन्द्र मारू, इंदौर ( +91 98260 26001)
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